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चंदेरी का भाग्य हमेशा से इसके बुनकरों के भाग्य के साथ जुड़ा हुआ रहा है। इसलिए, शहर का इतिहास इसके कलात्मक परंपरा पर एक नज़र दिये बिना अधूरा रहेगा।

चंदेरी में कब और कैसे बुनाई की शुरूआत हुई इसका कोई लिखित रिकार्ड नहीं है। लेकिन इतिहास की विशेष घटनाओं पर गौर करने पर यह कहना संभव है कि बुनाई की स्थापना महान आदरणीय सूफी हजरत वजीहुद्दीन के चंदेरी के प्रवास के बाद जल्द ही शुरू हुआ। हजरत वजीहुद्दीन यूसुफ महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया के एक खलीफा थे। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में, उन्हें हजरत निजामुद्दीन के द्वारा आदेश दिया गया था कि वे चंदेरी में जाकर बसें और लोगों के लिए वहाँ काम करें। वह सन् 1305 ई. में चंदेरी पहुँचें, अपना खानका स्थापित किया और जल्द ही उनके हजारों भक्त बन गये। ये भक्त न केवल चंदेरी और आसपास के क्षेत्रों से वरन् बंगाल जैसे दूर – दराज के स्थानों से भी आये थे। अपनी पुस्तक सियार – उल – औलिया में मीर खुर्द ने उल्लेख किया है कि अनेक भक्त विशेष रूप से लखनौती, जो ढाका के निकट है, न सिर्फ हज़रत वजीहुद्दीन के दर्शन को आये वरन् चंदेरी में बसने का फैसला भी किया। शायद लोगों के इस समूह ने ही चंदेरी में बुनाई की परम्परा की शुरूआत की क्योंकि ढ़ाका उस समय में भी बुनाई का एक प्रमुख केन्द्र था।

चंदेरी के बारीक रेशमी कपड़ों का उल्लेख किताबों में इसके संभावित शुरूआत के पचास साल के भीतर आने लगे। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान अबुल फजल द्वारा लिखित आइन – ए – अकबरी में चंदेरी के बारीक बुनाई बारे में चर्चा है। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान लिखित मासीर – ए – आलमगिरि के लेखक नें हमें चंदेरी में एक शाही कार्यशाला के अस्तित्व का जिक्र करते हैं जहाँ एक अत्यंत सुन्दर कपड़े का उत्पादन होता था जिसमें कि सोने और चांदी का काम होता था। ग्वालियर के सामंती राज्य के सन् 1907 ई. के गजट में चंदेरी में बुनाई की पुरानी परंपरा जारी रहने की पुष्टि है। इसमें यह भी कहा गया है कि बुंदेलों के शासनकाल के दौरान, कपड़ों पर उनकी मार्का थी जिसमें उछलते शेरों द्वारा एक ताज को चिह्नित किया गया था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चंदेरी में हथकरघा उद्योग की परंपरा कम से कम 14वीं सदी के से चली आ रही है और शुरू में इस असाधारण कपड़े को केवल शाही और बहुत अमीर वर्ग ही खरीद सकते थे।

विकास और तकनीक

कपड़ा ताना, जो कि लंबी खिंची हुई धागे हैं जिसके माध्यम से जो बाना या ताने के साथ लगाये धागे आगे और पीछे बुने जाते हैं, से बनता है। चंदेरी में बुनाई की स्थापना के बाद से, सन्1920 ई. तक केवल सफेद और धूमिल सफेद कपड़ा बुना जाता था जिसमें जरी या सुनहरे धागे के साथ किनारे होते थे। केवल हाथ से काता कपास का धागा ताना में भी उपयोग किया जाता था, हालांकि वह मुश्किल से तनाव झेलने के लिये पर्याप्त मजबूत होता था। उस समय के बुनकर अत्यधिक कुशल कारीगर थे क्योंकि उन्हें अत्यंत नाजुक सूती धागे से निपटने में बहुत सावधान रहना पड़ता था जब वे साफा, पगड़ी, दुपट्टा, लुगाडा और साड़ियाँ सहित वस्त्रों की एक मेल का उत्पाद करते थे।. ग्वालियर और बड़ौदा के सामंती राज्यों के राज-दरबार इन कपड़ों के प्रमुख खरीदारों में थे। बड़ौदा में, एक 120 फीट लंबी पगड़ी, राजकुमारों और महाराजाओं के लिए औपचारिक शाही पोशाक का हिस्सा था।

आज, कच्चा रेशम, जो 20-22 डेनियर मोटा होता है, लगभग हरेक साड़ी में ताना में प्रयोग किया जाता है। सिल्क न सिर्फ कपड़े को केवल एक चमकदार रूप ही प्रदान करता है, वरन् यह मजबूत भी है और इसलिए काम करने के लिए ज्यादा आसान है। कभी कभी एक पूरी टिशू साड़ी बनाने के लिए ताना में रेशम के साथ जरी का प्रयोग किया जाता है, लेकिन ये बहुत ज्नयादा नहीं बुने जाते हैं। जिस तरह की साड़ी चाहिये उसके आधार पर ताना में धागों की गिनती 4000 से लेकर 17000 तक भिन्न हो सकती है। बाना में, सूत, मरसिराइज्ड सूत, कच्चा रेशम या कटान का प्रयोग किया जाता है। किनारों और बुटी में, मरसिराइज्ड सूत,, रेशम और जरी धागे का प्रयोग किया जाता है। जरी, जो सूरत से मंगाया जाता है या तो असली होता है या परीक्षण किया होता है। यह तांबा, चांदी, और सुनहरे तीन अलग – अलग रंगों में आता है।

पहले थ्रो-शटल पिट के रूप में जाने जाने वाले करघे प्रयोग में थे। इस पर बुनाई एक बहुत समय लेने वाली प्रक्रिया थी और इसमें दो बुनकरों को साथ बैठने की आवश्यकता होती थी। नाल फारमा साड़ियाँ इस करघा पर बुनी जाती थी जिसमें एक बोर्डर एक रंग का, दूसरा दूसरे रंग का और साड़ी के मुख्य भाग में एक अलग रंग का होता था। लेकिन आजकल केवल फ्लाई – शटल करघे प्रयोग में हैं और इनको एक बुनकर ही चलाते हैं।

साड़ी डिजाइन में सबसे पहले के परिवर्तनों में दो चश्मी साड़ियाँ थी एक तरफ एक और दूसरे तरफ दूसरा रंग थे अर्थात् साड़ियाँ दो तरफा थीं। पर ये बनाने में बेहद मुश्किल थीं। दो महीने तो बस करघा स्थापित करने के लिए लगते थे और यह एक साड़ी को पूरा करने के लिए 45 दिन लग जाते थे।

1970 के दशक में चंदेरी साड़ियों के डिजाइन में एक तरह की क्रांति देखी गयी। गंगा जमुनी, मेहंदी रंगे हाथ, सदा सौभाग्यवती भवः जैसी अभिनव बोर्डर बेहद लोकप्रिय हो गये और इनका देश भर से सभी महिलाओं द्वारा मांग किया जाने लगा।

आजकल की लोकप्रिय बोर्डर डिजायनों में अड्डा बोर्डर शामिल है जो कि एक अत्यंत जटिल डिजाइन है, नक्शी भी एक ऐसा ही पैटर्न है, लेकिन इसमें एक अलग रंग का धागा प्रयोग किया जाता है और सादी जरी वाली पतेला बोर्डर। पाइपिंग बोर्डर में एक रंग होता है जिसमें अन्य रंग की पतली रेखाएँ मिली होती है।

पहले बुनाई के लिए सूत प्राकृतिक रंगों के साथ ही रंगी जाती थी, लेकिन आज प्राकृतिक और रासायनिक दोनों रंगों का उपयोग हो रहा हैं। उपयोग में आने वाले रंगों के नाम प्राकृतिक चीजों जैसे, फल, सब्जियों, फूलों, पक्षियों आदि से ली गयी हैं। तोतई तोता से हरे रंग को कहते है, जबकि मोर गर्दनी एक मोर की गर्दन की नीली व हरी रंग से व्युत्पन्न हैं। टमाटरी एक चमकीला टमाटर वाला लाल रंग है, प्याजी प्याज वाली गुलाबी है, नींबो तुरंजी नींबू वाला पीलापन और गजरी गाजर वाला लाल है। अंगूरी या अंगूर की तरह हल्का हरा रंग है, जबकि नारंगी का एक रंग है। केसरी भगवा रंग है, बादामी बादाम के रंग का है, चटनी पौधे का हरा रंग है और सुरमई भूरे रंग की एक शेड है।

चंदेरी की यात्रा शहर के करामाती बुनाई की किसी खरीद के बिना अधूरी रहेगी।

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